मौन शब्द की संधि विच्छेद की जाय तो म+उ+न होता है। म = मन, उ = उत्कृष्ट और न =नकार। मन को संसार की ओर उत्कृष्ट न होने देना और परमात्मा के स्वरूप में लीन करना ही वास्तविक अर्थ में मौन कहा जाता है।
वाणी के संयम हेतु मौन अनिवार्य साधन है। मनु्ष्य अन्य इन्द्रियों के उपयोग से जैसे अपनी शक्ति खर्च करता है ऐसे ही बोलकर भी वह अपनी शक्ति का बहुत व्यय करता है।
मनुष्य वाणी के संयम द्वारा अपनी शक्तियों को विकसित कर सकता है। मौन से आंतरिक शक्तियों का बहुत विकास होता है। अपनी शक्ति को अपने भीतर संचित करने के लिए मौन धारण करने की आवश्यकता है। कहावत है कि न बोलने में नौ गुण।
ये नौ गुण इस प्रकार हैं। 1. किसी की निंदा नहीं होगी। 2. असत्य बोलने से बचेंगे। 3. किसी से वैर नहीं होगा। 4. किसी से क्षमा नहीं माँगनी पड़ेगी। 5. बाद में आपको पछताना नहीं पड़ेगा। 6. समय का दुरूपयोग नहीं होगा। 7. किसी कार्य का बंधन नहीं रहेगा। 8. अपने वास्तविक ज्ञान की रक्षा होगी। अपना अज्ञान मिटेगा। 9. अंतःकरण की शाँति भंग नहीं होगी।
मौन के विषय में महापुरूष कहते हैं।
सुषुप्त शक्तियों को विकसित करने का अमोघ साधन है मौन। योग्यता विकसित करने के लिए मौन जैसा सुगम साधन मैंने दूसरा कोई नहीं देखा।
- परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू
ज्ञानियों की सभा में अज्ञानियों का भूषण मौन है। - भर्तृहरि
बोलना एक सुंदर कला है। मौन उससे भी ऊँची कला है। कभी-कभी मौन कितने ही अनर्थों को रोकने का उपाय बन जाता है। क्रोध को जीतने में मौन जितना मददरूप है उतना मददरूप और कोई उपाय नहीं। अतः हो सके तब तक मौन ही रहना चाहिए।
- महात्मा गाँधी
योग्यता विकसित करने के लिए मौन जैसा सुगम साधन मैंने दूसरा कोई नहीं देखा।
प्रतिदिन २-४ घंटे का मौन रखो । इससे तुम्हारी आंतरिक शक्ति बढ़ेगी, तुम्हारी वाणी में आकर्षण आयेगा । जो पतंगे की तरह इधर-उधर भटकते रहते हैं एवं व्यर्थ की बक-बक करते रहते हैं उनके चित्त में न शांति होती है, न क्षमा, न विचारशक्ति होती है और न ही अनुमान शक्ति । वे बिखर जाते हैं । स्त्रियों को तो मानो ज्यादा बोलने का ठेका ही मिला हुआ है । सास-बहू में, अड़ोस-पड़ोस में व्यर्थ की गप्पें मारकर वे स्वयं ही झगड़े पैदा कर लेती हैं । यदि झगड़े न भी होते हों तो फालतू बातें तो होती ही हैं । उन बेचारियों को पता ही नहीं होता कि व्यर्थ की बातें करने से प्राणशक्ति एवं वाक्शक्ति का ह्रास होता है ।